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डॉलर: वैश्विक मुद्रा बनने की यात्रा और सद्दाम का तख्ता पलट*

 *डॉलर: वैश्विक मुद्रा बनने की यात्रा।*


मुद्रा का इतिहास वैश्विक सत्ता संतुलन से गहराई से जुड़ा हुआ है। इतिहास में विभिन्न सभ्यताओं और साम्राज्यों ने अपनी-अपनी मुद्रा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन आधुनिक युग में अमेरिकी डॉलर ने वैश्विक मुद्रा के रूप में अपनी अटूट पकड़ बना ली।


19वीं और 20वीं शताब्दी में ब्रिटिश पाउंड का वर्चस्व था, लेकिन प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के बाद अमेरिका की आर्थिक और राजनीतिक ताकत ने डॉलर को प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बना दिया। 1944 के ब्रेटन वुड्स समझौते ने इसे औपचारिक रूप से विश्व व्यापार और वित्तीय लेन-देन की आधारशिला बना दिया। 


इसके बाद पेट्रोडॉलर प्रणाली और वैश्विक वित्तीय संस्थानों (IMF, वर्ल्ड बैंक) में डॉलर की अनिवार्यता ने इसे और सुदृढ़ किया।


आज अमेरिकी डॉलर न केवल अंतरराष्ट्रीय व्यापार, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिरता और देशों के विदेशी मुद्रा भंडार में भी प्रमुख स्थान रखता है।


 यह जानना आवश्यक है कि डॉलर ने यह स्थान कैसे प्राप्त किया और इसके पीछे कौन-से आर्थिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक कारक कार्यरत रहे।


डॉलर के अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनने की प्रक्रिया लंबी और जटिल रही है, लेकिन इसके पीछे कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएँ और कारक हैं।


1. प्रथम विश्व युद्ध से पहले


19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश पाउंड स्टर्लिंग अंतरराष्ट्रीय व्यापार और लेन-देन की प्रमुख मुद्रा थी। उस समय ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था स्वर्ण मानक (Gold Standard) पर आधारित थी, यानी मुद्रा का मूल्य सोने के भंडार से जुड़ा होता था।


2. प्रथम विश्व युद्ध और डॉलर का उदय


प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान यूरोपीय देश भारी कर्ज में डूब गए और उनका स्वर्ण भंडार तेजी से घटने लगा। 


इस समय अमेरिका ने यूरोपीय देशों को कर्ज दिया और अमेरिकी अर्थव्यवस्था मजबूत बनी रही। इसी दौरान अमेरिकी डॉलर को धीरे-धीरे सोने के समान सुरक्षित मुद्रा माना जाने लगा।


3. ब्रेटन वुड्स समझौता (1944)


द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के बाद अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका था। युद्ध के बाद की नई वित्तीय व्यवस्था बनाने के लिए ब्रेटन वुड्स सम्मेलन हुआ, जिसमें तय किया गया कि


अमेरिकी डॉलर को सोने से जोड़ा जाएगा ($35 प्रति औंस की दर से)।

बाकी देश अपनी मुद्रा को डॉलर के मुकाबले स्थिर रखेंगे।

इस समझौते से अमेरिकी डॉलर ग्लोबल रिज़र्व करेंसी बन गया।


4. स्वर्ण मानक का अंत (1971)


1960-70 के दशक में अमेरिका के बढ़ते व्यापार घाटे और वियतनाम युद्ध के खर्च ने डॉलर पर दबाव बढ़ा दिया। 


1971 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने डॉलर को सोने से अलग कर दिया, जिससे फिएट करेंसी सिस्टम शुरू हुआ, यानी अब डॉलर का मूल्य सरकार की नीतियों और वैश्विक विश्वास पर निर्भर करने लगा।


5. पेट्रोडॉलर सिस्टम (1973)


अमेरिका और सऊदी अरब के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें यह तय हुआ कि सऊदी अरब और ओपेक देश तेल का व्यापार केवल डॉलर में करेंगे। इससे डॉलर की माँग और भी बढ़ गई, क्योंकि हर देश को तेल खरीदने के लिए डॉलर की जरूरत पड़ने लगी।


6. वर्तमान स्थिति


आज भी अमेरिकी डॉलर सबसे प्रमुख रिज़र्व करेंसी बना हुआ है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार, वित्तीय संस्थान (IMF, वर्ल्ड बैंक), और कच्चे तेल जैसी वस्तुओं का व्यापार ज्यादातर डॉलर में ही होता है। हालांकि, हाल के वर्षों में चीन की मुद्रा युआन और यूरो जैसी मुद्राएँ डॉलर को टक्कर देने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन अभी भी डॉलर का दबदबा बरकरार है।


डॉलर के वैश्विक मुद्रा बनने की प्रक्रिया कई दशकों में विकसित हुई, जिसमें अमेरिका की मजबूत अर्थव्यवस्था, ब्रेटन वुड्स प्रणाली, स्वर्ण मानक का अंत, और पेट्रोडॉलर समझौते जैसी घटनाएँ शामिल थीं।


साथ ही सद्दाम हुसैन की सरकार के तख्तापलट (2003) में डॉलर की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अमेरिका द्वारा इराक पर आक्रमण के पीछे कई कारण बताए जाते हैं, जिनमें तेल, अमेरिकी डॉलर, और भू-राजनीतिक हित प्रमुख थे। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:


1. पेट्रोडॉलर सिस्टम को चुनौती


1970 के दशक में अमेरिका और सऊदी अरब के बीच पेट्रोडॉलर समझौता हुआ था, जिसके तहत पूरी दुनिया में तेल का व्यापार सिर्फ अमेरिकी डॉलर में किया जाने लगा। इससे डॉलर की वैश्विक माँग बनी रही और अमेरिका की अर्थव्यवस्था को स्थिरता मिली।


सद्दाम का तख्तापलट


लेकिन सद्दाम हुसैन ने 2000 में घोषणा की कि इराक अब अपने तेल का व्यापार अमेरिकी डॉलर के बजाय यूरो में करेगा। यह अमेरिका के लिए बड़ा आर्थिक और रणनीतिक खतरा था, क्योंकि अगर अन्य ओपेक देश (विशेष रूप से ईरान और वेनेजुएला) भी ऐसा करने लगते, तो डॉलर की पकड़ कमजोर हो सकती थी।


2. अमेरिका का इराक पर आक्रमण (2003)


मार्च 2003 में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने इराक पर हमला कर दिया। आधिकारिक कारण सद्दाम हुसैन के पास "मास डेस्ट्रक्शन वेपन्स (WMD)" होने का संदेह बताया गया, लेकिन बाद में यह दावा झूठा साबित हुआ।


डॉलर और तख्तापलट का संबंध:


अमेरिका को डर था कि यदि इराक यूरो में तेल बेचना शुरू करता है, तो अन्य तेल उत्पादक देश भी यही कर सकते हैं, जिससे डॉलर कमजोर हो सकता है।


अमेरिका ने इराक पर कब्जा करने के बाद वहां की तेल नीति को फिर से डॉलर-आधारित कर दिया।


सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाने के बाद अमेरिका ने इराक की तेल अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण पा लिया, जिससे पेट्रोडॉलर सिस्टम को बचाया जा सका।



3. युद्ध के बाद की स्थिति


सद्दाम हुसैन को पकड़कर 2006 में फांसी दे दी गई।


इराक में अमेरिका समर्थित सरकार बनाई गई, जिसने तेल व्यापार फिर से अमेरिकी डॉलर में करना शुरू किया।


इससे अमेरिका ने पेट्रोडॉलर की वैश्विक स्थिति को बनाए रखा और यूरो को इस व्यापार में आने से रोका।


इराक युद्ध सिर्फ "हथियारों" और "तानाशाही शासन" के खिलाफ नहीं था, बल्कि इसके पीछे अमेरिका का आर्थिक और रणनीतिक हित, खासकर डॉलर की वैश्विक स्थिति को बनाए रखना भी एक महत्वपूर्ण कारण था। सद्दाम हुसैन का यूरो में तेल बेचने का फैसला उनके तख्तापलट में एक बड़ा कारक साबित हुआ।

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