शाहबानो केस भारतीय राजनीति और न्याय व्यवस्था के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसमें कांग्रेस पार्टी की भूमिका और रुख को लेकर व्यापक बहस हुई।
शाहबानो केस: पृष्ठभूमि
शाहबानो बेगम एक 62 वर्षीय मुस्लिम महिला थीं, जिन्हें उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने 1978 में तलाक दे दिया। शाहबानो ने गुज़ारा भत्ता (maintenance) के लिए अदालत का रुख किया।
1. निचली अदालत और हाईकोर्ट का फैसला:
अदालतों ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया और उनके पति को गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया।
2. सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला (1985):
सुप्रीम कोर्ट ने भी शाहबानो के हक में फैसला सुनाते हुए उनके पति को CrPC (धारा 125) के तहत गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि "धार्मिक कानून (शरिया) के बावजूद संविधान और कानून का पालन सभी पर समान रूप से लागू होता है।"
कांग्रेस का रुख और मुस्लिम पर्सनल लॉ का दबाव
शाहबानो केस के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मुस्लिम समाज के कुछ संगठनों, विशेष रूप से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि यह फैसला शरिया कानून (मुस्लिम पर्सनल लॉ) में हस्तक्षेप करता है।
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को मुस्लिम समुदाय के एक बड़े वर्ग की नाराज़गी का सामना करना पड़ा।
कांग्रेस, जो उस समय मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर थी, ने मुस्लिम संगठनों के दबाव में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पास कर दिया।
मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986
यह कानून सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए लाया गया। मुख्य प्रावधान:
1. तलाकशुदा मुस्लिम महिला को गुज़ारा भत्ता केवल इद्दत की अवधि (तलाक के बाद 3 महीने) तक ही मिलेगा।
2. इसके बाद महिला के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उसके परिवार या वक्फ बोर्ड की होगी।
विवाद और आलोचना
1. नारीवादियों और प्रगतिशील वर्ग ने इस कानून की आलोचना की। उनका मानना था कि यह मुस्लिम महिलाओं के समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
2. सुप्रीम कोर्ट का फैसला धर्मनिरपेक्षता और संविधान के मूल सिद्धांतों पर आधारित था, लेकिन कांग्रेस सरकार ने वोट बैंक की राजनीति के कारण इसे पलट दिया।
3. हिंदू और अन्य धर्मनिरपेक्ष वर्ग ने कांग्रेस पर "तुष्टीकरण" का आरोप लगाया।
कांग्रेस का बचाव
कांग्रेस ने अपने कदम को यह कहते हुए उचित ठहराया:
यह कानून मुस्लिम समुदाय की संस्कृति और धार्मिक परंपराओं के सम्मान में लाया गया।
सरकार का उद्देश्य धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने से बचाना था।
राजनीतिक परिणाम
शाहबानो केस और उसके बाद के घटनाक्रम ने भारतीय राजनीति में कांग्रेस की छवि पर गहरा प्रभाव डाला:
1. हिंदू मतदाताओं के एक वर्ग में यह धारणा बनी कि कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपना रही है।
2. यह घटना भारतीय जनता पार्टी (BJP) के उभार का एक प्रमुख कारण बनी, जिसने इसे हिंदू समुदाय को एकजुट करने के मुद्दे के रूप में उठाया।
निष्कर्ष:
शाहबानो केस में कांग्रेस के रुख ने धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम पर्सनल लॉ के बीच टकराव को उजागर किया। आलोचकों का मानना है कि कांग्रेस ने तत्कालीन राजनीतिक लाभ के लिए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को पलट दिया, जबकि समर्थकों का कहना है कि उसने धार्मिक समुदायों की भावनाओं का सम्मान किया।
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